नृत्य

भरतनाट्यम, तमिलनाडु (दक्षिण भारत)

दक्षिण भारत में तमिलनाडु का भरतनाट्यम ऐसा नृत्‍य है जो मंदिरों को समर्पित नर्तकों की कला से उपजा है और इसे पूर्व में सादिर अथवा दासी अट्टम के रूप में जाना जाता था। यह भारत का ऐसा पहला पारम्‍परिक नृत्‍य है जिसे मंच कला के रूप में नए सिरे से तैयार किया गया और इसे देश और विदेश दोनों में व्‍यापक स्‍तर पर प्रस्‍तुत किया जाता है।

भरतनाट्यम भरत के नाट्यशास्‍त्र जैसे कालजयी ग्रंथ में निर्धारित प्रस्‍तुति और सौंदर्यकला संबंधी सिद्धांतों पर अधारित है। इसकी तेलुगू, तमिल और संस्‍कृत में गीतों की एक समृद्ध प्रदर्शन सूची है। भारत नाट्यम गायन प्रस्‍तुति का वर्तमान स्‍वरूप तथा इसकी संगीत बद्ध प्रस्‍तुतियों का महत्‍वपूर्ण भाग उन्‍नीसवीं सदी के ख्‍याति प्राप्‍त 'तंजौर के चार बधुओं' पौन्‍नइया,चिन्‍नइय्या, शिवानंदम और वेदिवलु बंधुओं द्वारा तैयार किया गया था। भरतनाट्यम में नृत्‍या, भावात्‍मक नृत्‍य, और नृत्‍य की उच्‍च रूप से विकसित भाषा है जो कथा को व्‍यक्‍त करती है। इसके विषयों की एक व्‍यापक श्रेणी है जो मानवीय और ईश्‍वरीय प्रेम जैसे विषयों को समाहित करती है और सामान्‍यत: इन्‍हें श्रृंगार (श्रृंगारिकप्रेम) और भक्ति (उपासना) के शीर्षकों में वर्गीकृत किया जाता है। भरतनाट्यम का संगीत दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत से संबंध रखता है। इसकी नृत्‍य गायन प्रस्‍तुति में कम से कम एक गायक, एक मृदंग वादक और एक बासूंरी अथवा वायलिन अथवा वीणा वादक शामिल होता है। इस समूह में एक नट्टूवनर अथवा नृत्‍य निर्देशक भी होता है जो पीतल के मजीरों की जोड़ी को बजाते हुए नृत्‍य शब्‍दांशों को गाता है।

मणिपुरी नृत्‍य, मणिपुर (पूर्वोत्‍तर भारत)

पूर्वोत्‍तर भारत के मणिपुर में विकसित हुए मणिपुरी नृत्‍य को मेइतीज़ अथवा मणिपुर घाटी के लोगों के वैष्‍णव मत से संबद्ध माना जाता है। मणिपुर के मंदिर अभी भी इस नृत्‍य को प्रस्‍तुत करने के मुख्‍य मंचन स्‍थल हैं। इसलिए आराधना मणिपुरी नृत्‍य का मुख्‍य विषय है राधा ओर कृष्‍ण की समृद्ध कथाएं इसको आख्‍यानात्‍मक विषय प्रदान करती हैं। सदियों से, यह कला रूप विकास के बहुत से चरणों से गुजरा है और तब यह अपने वर्तमान परिष्‍कृत थिएटर कला स्‍वरूपतक पहुंचा है।

भारत के अन्‍य नृत्‍यो की तुलना में मणिपुरी नृत्‍य अधिक अन्‍तर्मुखीय और संयमित है - इसमें कलाकार दर्शकों के साथ नजरें नहीं मिलाता। इसमें हरकते वृतीय और सतत होती है और ये एक-दूसरे से मिलती जाती हैं। मुद्राएं तथा हस्‍त- भगिमाएं समग्र हरकतों के प्रवाह में सूक्ष्‍मता से लीन हो जाती हैं। इसमें हल्‍की-हल्‍की मुख-मुद्राएं होती हैं और इन्‍हें कभी भी बढ़ा कर पेश नहीं किया जाता। इसकी इन विशेषताओं को अधिक फुरतीले पुरूष नृत्‍य में भी देखा जा सकता है।

जगोई और चोलोम मणिपुरी नृत्‍य की दो मुख्‍य शौलिया सौम्‍य है जबकि दूसरा जोशीली जिन्‍हें संस्‍कृत साहित्‍य में वर्णित लास्‍य और तांडव तत्‍वों से संबंधित माना जाता है। इसके ये दो नृत्‍य रूप स्‍वतंत्र विधा का निर्माण करते हैं और एक कलाकार इस नृत्‍य विधा के भीतर किसी एक नृत्‍य शैली में महारत हासिल करने के लिए अपना सम्‍पूर्ण जीवन लगा देता है। जगोई शैली मुख्‍यत: रासलीला और इसी प्रकार की प्रस्‍तुतियों में मिलती है। इस तरह के नृत्‍य में पैर मुडे होते हैं और घुटने एक-दूसरे के नजदीक होते हैं इससे पांवों को जमीन पर धीरे से रखने में मदद मिलती है और यह हरकतों को तैरतीलहर का आभास प्रदान करते है। भारत के बहुत से अन्‍य नृत्‍यों की भांति इसमें कदम हाल की आवाज सुनाई नहीं देती जहां इन्‍हें प्राय: ताल को प्रदर्शित करने के लिए आयोग किया जाता है। मणिपुरी नृत्‍य में मुख्‍य रूप से पंग, ढोल और बासुरी जैसे वादय यंत्रों का उपयोग किया जाता है।

कथक (उत्‍तर भारत)

कथक उत्‍तर भारत का एक मुख्‍य नृत्‍य है जो आज मुख्‍य रूप से उत्‍तर प्रदेश, राजस्‍थान मध्‍य प्रदेश और यहा तक कि भारत के पश्चिमी और पूर्वी भागों में चलन में है। ऐसा माना जाता है कि इसका संबंध कथाकारों की आख्‍यायिका कला अथवा कथा वाचकों से है जो प्राचीन समय से आम लोगों को रामायण और महाभारत महाकाव्‍यों और पौराणिक साहित्‍य जैसे धार्मिक ग्रंथो की कथाएं सुनाया करते थे। अपनी हरकतों और अभिव्‍यक्ति परक शब्‍दों का विस्‍तार और परिष्‍कार करते हुए यह कला संभवत : मध्‍यकाल में दरबारी परिदेश के रूप में रूपान्‍तरित हो गई और मुगल शासनकाल के दौरान यह अपने परवान तक पहुंच। इसके बाद, उन्‍नीसवीं सदी में लखनऊ, जयपुर रायगढ़ के राज दरबार तथा अन्‍य स्‍थान कथक नृत्‍य के मुख्‍य केन्‍द्रों के रूप में उभरे । बीसवीं सदी के दौरान जब कथक के प्रशिक्षण और व्‍यवहार को सार्वजनिक संस्‍थानों से अधिक से अधिक सहायता मिलने लगी तब नर्तक समूहों वाली नृत्‍य निर्देशित प्रस्‍तुतियों को कथक के व्‍यवहार में अधिक स्‍थान मिलने लगा। कथक की विषय वस्‍तु का संसार आज बहुत व्‍यापक हो गया है लेकिन फिर भी कृष्‍ण कथा का इसकी कथा सूची में पैरो की हरकतें और घिरनीखाना इसकी मुख्‍य विशेषता होती है और यह मुख्‍यत: ताल-बद्ध नृत्‍य है। इसमें कथा का आरंभ अमाद से होता है और ये थाट, गट निकास,परान और ततकार तक बढ़ती है ये अन्‍तराल विभिन्‍न ताल और गति में नृत्‍य के अवसर प्रदान करते हैं और ये नृत्‍य भावात्‍मक और अभिव्‍यक्ति परक दोनों तरह का होता है। पारम्‍परिक कथक का संगीत ठुमरी तथा अन्‍य गेय गीत- रूपोंपर आधारित होता है और इसमें मुख्‍य रूप से तबला, पखवाज़ और सारंगी जैसे संगीत वाद्ययत्रोंका उपयोग किया जाता है। आजकल कथक प्रस्‍तुतियों में सितार तथा अन्‍य तार वाले वाद्य यत्रों का इस्‍तेमाल भी किया जाता है।

ठुमरी हिन्‍दुस्‍तानी संगीत की एक लोकप्रिय शैली है जिसकी विशेषता लयबद्ध गीत होते है जो अद्भुत प्रेम की विभिन्‍न भावनाओं को व्‍यक्‍त करते हैं। उन्‍नीसवीं सदी में लखनऊ के वाजिद अली शाह के दरबार में कथक नृत्‍य के साथ इसका एक विशेष सम्‍बध स्‍थापित हुआ। आमतौर पर, एक ठुमरी में दो से चार पक्तियां होती है जिन्‍हें स्‍थाई-अन्‍तरा शैली का उपयोग करके कभी-कभी बार-बार दोहराया जाता है। इसका गायक स्‍वरों के मोड़ो तथा लय परिवर्तनों के द्वारा गीत की प्रत्‍येक पंक्ति की पुनरावृत्ति करके अर्थों की नई छटाएं निकालता है और प्रस्‍तुत करता है- इस पद्धति को बोल बनाना के रूप में जाना जाता है। ठुमरी बहुत अलंकृत होती है जिसमे स्‍वरों की बारीकिया, मुरकिया और कंपन होती हैं। इसे सामान्‍यत : मंदताल पर गाया जाता है जिसमें कभी-कभी लग्‍गी नामक ढोल के जीवन्‍त अन्‍तराल भी होते हैं। ठुमरी गायन की बहुत-सी शैलियां है लेकिन पंजाबी, पूरबी (लखनऊ की) और बनारस शैलियां प्रमुख मानी जाती है।

ओडिसी नृत्‍य, ओडिशा (पूर्वी भारत)

ओडिसी नृत्‍य की उत्‍पति पूर्वी भारत, के ओडिशा में हुई है। अपने शुरूआती रूप में इसे महरिस अथवा मंदिरों की महिला सेविकाओं द्वारा मंदिर के सेवा कार्यों के रूप में प्रस्‍तुत किया जाता था। इस पारंपरिक नृत्‍य को बीसवीं शताब्‍दी के माध्‍य में थिएटर कला के रूप में नया स्‍वरूप प्रदान किया गया जिसका संदर्भ केवल विद्यमान नृत्‍य रूप तक सीमित नहीं था बल्कि इसने ओडिशा की मध्‍यकालीन मूर्तिकला, चित्रकला और साहित्‍य में नृत्‍य को प्रस्‍तुत किया।अपने नए स्‍वरूप में ओडिशा नृत्‍य देश भ्‍र में तेजी से प्रचलित हुआ। ओडिशा का वैष्‍णव मत ओडिसी नृत्‍य का अन्‍तभूर्त तत्‍व है। कृष्‍ण और राधा की कथा इसको विषय-वस्‍तु प्रदान करती है। इसलिए ओडिसी नृत्‍य की प्रदर्शन सूची में जयदेव के गीतगोविंदन का विशेष स्‍थान है इसके साथ-साथ इसमें अपेंद्र भांजा और बनमाली दास जैसे मध्‍यकालीन एवं शुरूआती आधुनिक कवियों द्वारा रचित गीत भी शामिल हैं। नर्तकों द्वारा हस्‍त मुद्राओं की व्‍यवस्‍था का उपयोग करके इनकी व्‍याख्‍या की जाती है। 'पदभेदा' की संहिताबद्ध पदचाल 'चालिस' नामक चाल एवं पग तथा घुमाव अथवा 'ब्रह्मरिस' ओडिसा नृत्‍य की तकनीक के अन्‍य घटक हैं। चूंकि इसे नृत्‍य के मूर्तिकला प्रस्‍तुतिकरण से आंशिक रूप से पुनर्निमित किया गया है, ओडिसी अपनी नृत्‍य प्रस्‍तुति में लचकदार प्रतीत होता है खासकर अपनी सर्पिल 'त्रिभंगी' अथवा दृढ़ चकौर आसन जिसे चौक कहा जाता है। इसमें अंग संचालन सौम्‍य और सुंदर होता है। इसमें नर्तक को एक गायक और एक ढोलवादक द्वारा साथ दिया जाता है जो पख्‍वाज, बासुरी और सितार बजाता है। नृत्‍य संचालक भी संगीतकार के साथ बैठता है और लय पूर्ण पदों को गाता है तथा अपने मजीरों से समय ताल का ध्‍यान रखता है।

कथकली

कर्नाटक के राजकुमार के संरक्षण में 17वीं शताब्‍दी में कथकली अथवा 'लघु-नाटिका' ने दक्षिण भारत में केरल में अपना निश्चित स्‍वरूप प्राप्‍त किया जिन्‍होंने इस क्षेत्र की भाषा मलयालम में रामायण और महाभारत से ली गई प्रस्‍तुतियों के लिए नाटक लिखे। अधिकांश कथकली नाटकों की कहानी की विषय वस्‍तु रामायण और महाभारत पर आधारित होती हैं जो तीन शताब्दियों की निरन्‍तर धारा के पश्‍चात हम तक पहुंची हैं।

कथकली अपने पात्रों को उनकी प्रकृति के अनुरूप वर्गीकृत करता है और प्रतीकात्‍मक व्‍यक्तित्‍वों के रूप में उन्‍हें प्रस्‍तुत करनेके लिए श्रृंगार और परिधान का उपयोग किया जाता है। पात्रों के चेहरों को उनके द्वारा प्रदर्शित चरित्र के अनुरूप रंगा जाता है- नायको, राजाओं तथा देवताओं के लिए हरा रंग तथा दुरात्‍माओं और क्रूरता के लिए लाल और काला रंग प्रयोग किया जाता है। पुरूप पात्रों के लिए एक बड़ासा लहरदार घाघरा और विभिन्‍न सुसम्‍पन्‍न साफे इसके परिधान की मुख्‍य विशेषताएं हैं।

कथकली नाटकों में अभिनयकर्ता की प्रस्‍तुति पूर्णरूप से अवाक होती है। इसमें नाट्य गीत (लिब्रेटो) को मंच पर दो गायकों द्वारा गाया जाता है जो घंटे और मजीरे पर समय, ताल का ध्‍यान रखते हैं जबकि मंच पर मौजूद ढोल वादकों की एक जोडी चैंदा हो जाती है। चहरे की भाव भंगिमाओं और हस्‍त मुद्राओं की शब्‍दावली का उपयोग करके कहानी को प्रस्‍तुत किया जाता है।

कथकली की पारंपरिक प्रस्‍तुति प्रारंभिक तैयारियों के पश्‍चात सांय काल में शुरू होती है जिसमें मडलम पर ढोल वादन पर ईश्‍वर वंदना शामिल है और यह प्रात:काल में समाप्‍त होती है। यद्यपि पहले पूरी रात में केवल एक नाटक का ही प्रस्‍तुतिकरण किया जाता था लेकिन आजकल दो और तीन नाटकों से चयनित दृश्‍यों को प्रस्‍तुत किया जाता है।

मोहिनी अट्टम

दक्षिणी भारत से संबंधित मोहिनी अट्टम मोहिनी नामक पौराणिक मायावनी के नाम पर है। यह स्त्रियोचित शोभा से जुडा नृत्‍य है जो केरल के मंदिरों से संबंधित प्रस्‍तुतियों से उपजा है।

त्रावनकोर के राजकुमार स्‍वाति तुरुनल, कलाओं के संरक्षक थे और स्‍वयं एक कलाकार थे। तथा 19वीं शताब्‍दी में नृत्‍य के मुख्‍य रचियताओं में से एक थे और उन्‍होंने कला प्रस्‍तुतियों का साथ देने के लिए अनेक रंग पटल गीतों की रचना की थी। मोहिनी अट्टम की विशेषता है कि उसका स्‍त्रीत्‍व भाव, जिसमें भारी नृत्‍य पद या लय बद्ध तनाव नहीं होता : कदमों की हरकतें अत्‍यंत हल्‍की, कोमल और खिसकाव के साथ ली जाती हैं। नर्तक का शरीर एक सहज भाव से ऊपर उठता है और नीचे आता है, जिसमें मुख्‍यत: धड के भाग को महत्‍व दिया जाता है। नृत्‍य की गति में नियंत्रण रखनाइस नृत्‍य की विशिष्‍टता है।

मोहिनी अट्टम में उन लयों का उपयोग किया जाता है जो विशेषत केरल से हैं : उपयोग में लाये जाने वाले लयबद्ध शब्‍दांश मंडालम के होते हैं, जो कथकली रंगमंच में नारी संबंधी भूमिकाओं का साथ देने हेतु बजाया जाने वाला एक ढोल है। प्रस्‍तुतियों में मुख्‍य रूप से एड्डक्‍का ताल वाद्य का प्रयोग किया जाता है। इसमें प्रमयोग किए जाने वाले संगीत वाद्य है मृदंगम, वीणा, बांसुरी और कुझीतालम या सिंबल। नृत्‍य की मुद्राओं की चाल लय के स्‍पंदन के अनुरूप होती है।

कुचिपुड़ी (दक्षिण भारत)

भारत के प्रमुख नृत्‍य रूपों में से एक कुचिपुड़ी नृत्‍य का उदगम आंध्र प्रदेश में हुआ जहां यह 7वीं शताब्‍दी के आरंभ में भक्ति आंदोलन के परिणामस्‍वरूप बहुत फला-फूला। कुचिपुड़ी ने अपना नाम कुचेलापुरम गांव से लिया है। जहां इसे उन महान विद्वानों और कलाकारों ने पोषित किया। जिन्‍होंने रंगमंडल का निर्माण किया व तकनीकों को निखारा। कुचिपुड़ी, नृत्‍त, नृत्‍य व नाटक की एक नृत्‍य नाटिका है। नृत्‍त में तीर मानम एवं जातियां, नृत्‍य में शब्‍दम तथा नाटय में गीतों के लिए मुद्राओं सहित अभिनय शामिल है। नृत्‍त में नृत्‍य के प्रतिरूपों के रूप में ऐसे कदम और चाले सम्मिलित हैं जो अपने आप में अलंकृत होते हुए भी कोई अर्थ प्रकट नहीं करते। कुचिपुड़ी नर्तक मंच पर एक बहुविध व्‍यक्तित्‍व प्रस्‍तुत करता है और यह बहुविधता मूकाभिनय के ऐसे त्‍वरित परिवर्तन से प्राप्‍त करता है जो किसी प्रसंग के भाव की काव्‍यात्‍मक प्रबलता की प्रतीकात्‍मकता और नाटकीय सामग्री के यथार्थवाद के संयोजन पर अधिक निर्भर करता है। इसका परिणाम यह है कि चाल की गत्‍यात्‍मकता और भाव की अभिव्‍यक्ति पर अधिक बल दिया जाता है।

कुचिपुड़ी नृत्‍य का साथ देता है कर्नाटक संगीत आज कुचिपुड़ी नृत्‍य एकल, युगल या सामूहिक प्रस्‍तुतिकरण के माध्‍यम से पेश किया जाता है परंतु ऐतिहासिक रूप में इसे एक नृत्‍य नाटिका की तरह प्रस्‍तुत किया जाता था जिसमें अनेक नर्तक विभिन्‍न भूमिकाएं निभाते थे।

Kuchipudi dance is accompanied by Carnatic Music. Kuchipudi today is performed either as a solo, duet or a group presentation, but historically it was performed as a dance drama, with several dancers taking different roles.

सत्‍तरिया नृत्‍य

‘सत्‍तरिया नृत्‍य’ नृत्‍य और नृत्य नाटक की उन भाव-भगिमाओं को संदर्भित करता है जिनका विकास असम के सत्‍तराओं अथवा मठों में सोलहवीं सदी के पश्‍चात हुआ, जब सन्‍त और समाज सुधारक शंकर देव (1449-1586) द्वारा प्रचारित वैष्‍णव आस्‍था भूमि पर फैली। यह भारतीय शास्‍त्रीय नृत्‍य रूप के भीतर एक विशिष्‍ट शैली है जो कृष्‍ण भक्ति पर केन्द्रित हाथ के इशारे की विकसित भाषा (हस्‍त), कदमों के प्रयोग (पाद कर्म), गति और अभिव्‍यक्ति (नृत्‍य एवं अभिनय), तथा प्रदर्शनों की फेहरिस्‍त पर आधारित है।

20वीं शताब्‍दी के द्वितीय भाग के पश्‍चात से, जब यह मठीय कला इसके कलाकारों द्वारा सत्‍तराओं से बाहर फैली, सत्‍तरिया नृत्‍य भी आधुनिक रंगमंच कला के रूप में प्रस्‍तुत किया जाने लगा। आज मंच पर एक कलाकार कभी-कभी नई कोरियोग्राफी द्वारा सहायता लेकर परम्‍परागत प्रदर्शनों से ग्रहण किये गये कार्यक्रम प्रस्‍तुत करता है। आम तौर पर यह सत्‍तरा में प्रदर्शन के संचालक सूत्रधार के नृत्‍य द्वारा देवताओं की प्रार्थना, कृष्‍ण अथवा राम से प्रारम्‍भ होता है। चुने हुए विषय को नृत्‍य की इन शाखाओं में उसकी पूर्ण निपुणता के साथ अभिन्‍य विस्‍तार देते हुए नर्तक तब सत्‍तराओं के विशाल साहित्‍य पर आधारित शुद्ध नृत्‍य और अभिन्‍य का मिश्रण प्रस्‍तुत कर सकता है। रमदानी, चाली, मेला नाच और झूमर नृत्‍य के लिए कार्य क्षेत्र जबकि अभिनय को गीटर नाच के रूप में प्रस्‍तुत किया जा सकता है। समूह नृत्‍य भी परंपरागत और आधुनिक सत्‍तरिया नृत्‍य में आम है और ये संगीतकारों के एक समूह द्वारा ड्रमों, गायन बायन पर मंचित लघु संगीतमय ‘मध्‍यांतर’ के साथ प्रारंभ होता है। संपूर्ण रूप से परंपरागत सत्‍तरिया नृत्‍य की शैली में मूलत: नृत्‍य नाटक भी आज मंच पर प्रस्‍तुत किए जाते हैं। नृत्‍य के संगीतमय संघटक इसके लयबद्ध, माधुरीय और गीतात्‍मक पहलुओं में समृद्ध और भिन्‍न है।

छऊ (पूर्वी भारत)

पूर्वी भारत का छऊ नृत्‍य – छऊ नृत्‍य पूर्वी भारत के उडीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल - इस क्षेत्र के पारंपरिक युद्ध, मंदिरों के अनुष्‍ठान और लोक नृत्‍य तथा प्रसिद्ध अभिनय का सम्‍मिश्रण है। महाकाव्‍यों महाभारत, रामायण, पुराण के एपिसोडों, पारंपरिक लोक साहित्‍य, स्‍थानीय प्रसिद्ध व्‍यक्तित्‍वों और नृत्‍य और संगीत समूहों के माध्‍यम द्वारा संक्षिप्‍त विषय जिसमें मुख्‍य रूप से देशी ढोल होता है, के माध्‍यम से प्रस्‍तुत किया जाता है। अपने पारंपरिक संदर्भ में नृत्य इस क्षेत्र के उत्‍सवों और अनुष्‍ठानों से घनिष्‍टता से जुड़ा हुआ है। इनमें सबसे महत्‍वपूर्ण चैत्र पर्व है जो अप्रैल के महीने में मनाया जाता है। चैत्र माह में वसंत के आगमन और फसली मौसम के प्रारंभ का उत्‍सव मनाया जाता है। इसमें माधुर्य बांटा और मोहुरी, तुरी-भेरी और शहनाई जैसे मुरली द्वारा प्रदान किया जाता है। यद्यपि, छऊ में गायन संगीत का प्रयोग नहीं किया जाता, माधुर्य झूमर लोक भंडार, भक्तिमय कीर्तन, शास्‍त्रीय हिन्‍दुस्‍तानी रागों और पारंपरिक उडिया स्रोतों के गीतों पर आधारित होता है। ढोल, धम्‍सा, नगाडा, चडचडी और झांज छऊ नृत्‍य को संगत प्रदान करते हैं।

अधिक जानकारी के लिए कृपया http://www.sangeetnatak.gov.in external link देखें

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